Whole Struggling Story of Agitator Uma Lakhanpal Part-1


भाग-1


दोस्तों, आज हम आपको एक ऐसी कहानी सुनाने वाले हैं जिसमें आपको न तो लैला मजनू के गुदगुदाने वाले किस्से मिलेंगे और ना ही हैरान कर देने वाले जादुई परियों के हसीन और सपनीले कारनामे। यह कहानी हमारी इसी पथरीली ज़मीन और उसके कंटीले रास्तों के एक ऐसे यथार्थ से जुड़ी है जिससे आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में ना सिर्फ रूबरू होते हैं बल्कि खुद भी उसे जीते व उसके ताप को महसूस करते हैं। यह कहानी मौजूदा समाज के बिखरते ताने-बाने, दरकते-टूटते सगे संबंधों और रिश्ते-नातों तथा यारों दोस्तों के आपसी भाईचारे पर भी सवालिया निशान लगाने वाली है जिस पर आज से एक सदी पहले हम गर्व किया करते थे। यह कहानी सुनने के बाद आपके मन को कोई सुकून या शांति नहीं मिलेगी बल्कि आपकी परेशानी और बेचैनी और भी ज्यादा बढ़ जाएगी क्योंकि इस कहानी का अंत सुखांत नहीं बल्कि दुखांत है। दोस्तो, यह कहानी ना सिर्फ एक छोटे से परिवार के अंतहीन और असीम दुख दर्द की कहानी है बल्कि मौजूदा जनविरोधी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ इस परिवार के लंबे और अथक संघर्ष की कहानी भी है। एक ऐसा संघर्ष जो जाने अनजाने इस परिवार को क्रूर राजसत्ता से टकराने के लिए मजबूर कर देता है। इस प्रक्रिया में वह मौजूदा जनविरोधी व्यवस्था के सभी पायों को पूरी तरह बेनकाब कर देता है जिसमें विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया आदि शामिल हैं। भले ही आज यह परिवार 25 साल तक लगातार संघर्ष करते हुए तबाह और बर्बाद हो गया हो। भले ही यह परिवार लगातार लड़ते-लड़ते आज मौजूदा व्यवस्था के चक्रव्यूह में उलझ कर मौत के कगार पर पहुंच गया हो। लेकिन अभी भी यह परिवार न तो थका है न हारा है और न ही कहीं से टूटा है। इस परिवार का साहस, उसकी हिम्मत और हौसले आज भी उसी तरह बुलंद हैं जिस तरह से आज से 25 साल पहले थे। हमारा दावा है कि जो लोग आज भी मौजूदा व्यवस्था को जनविरोधी मानने से इनकार करते हैं और अपनी समस्याओं के हल शांतिपूर्ण तरीके से कानूनी व लोकतांत्रिक संघर्ष में ढूंढा करते हैं उनकी मौजूदा व्यवस्था को लेकर बनी अब तक की सभी अवधारणाएं और मान्यताएं निश्चित रूप से बदल जाएंगी क्योंकि इस कहानी में कुछ घटनाएं और कुछ ऐसे अविश्वसनीय लगने वाले किस्से भी शामिल हैं जो न सिर्फ आपके दिल और दिमाग को झकझोर कर रख देंगे बल्कि आपको सोचने के लिए मजबूर भी कर देंगे। दोस्तों, जब भी कोई लेखक अपने संस्मरण लिखता है तो वह उसे तमाम तरह से विस्तारित कर देता है। जैसे, वह हर घटना का अपने ढंग से विश्लेषण भी करता रहता है। हर घटना की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए वह बीच-बीच में अपनी तरफ से टिप्पणियां भी करता चलता है लेकिन हमने यह कहानी लिखते समय इन तमाम चीजों से बचने की कोशिश की है ताकि एक 25 साल लंबी कहानी को सिर्फ कुछ घंटों में ही समेटा जा सके। इसलिए हमने इस कहानी के ज्यादा से ज्यादा तथ्यों और प्रमुख घटनाओं को ज्यों का त्यों अपने पाठकों के सामने रख दिया है। लेखक का विश्लेषण उसकी व्याख्या और टिप्पणियों का इस कहानी में नाम मात्र का ही उपयोग कहीं-कहीं किया गया है। अगर हमने इस कहानी को किसी लेखक के संस्मरण के रूप में आपके सामने परोसा होता तो यह कहानी निश्चित ही किसी मोटे ग्रंथ का रूप ले लेती। जैसे, रामायण और महाभारत। और सचमुच दोस्तों, यह कहानी किसी महाभारत से कम छोटी या कम महत्वपूर्ण नहीं है जिसे हमने कहानी के प्रमुख हिस्सों को समेटकर कुछ घंटे की कहानी के रूप में आपके सामने प्रस्तुत किया है। आप यानी दुनिया की सबसे बड़ी अदालत, जनता की अदालत के समक्ष पेश किया है क्योंकि हम जानते हैं कि जनता की अदालत का समय सरकारी अदालत से भी ज्यादा बेशकीमती और अमूल्य है। इसलिए यह कहानी हम आपको तीन अध्याय में सुनाएंगे। अंत में हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह कहानी लिखने का हमारा मकसद लोगों का मनोरंजन करना कतई नहीं है बल्कि इसका उद्देश्य लोगों को सामाजिक व राजनीतिक रूप से जागरूक व सजग करना है। उन्हें नींद से जगाना और उनकी आंखें खोलना है। तो दोस्तों, आपका ज्यादा समय ना लेकर अब हम इस अनोखी और इससे पहले कभी ना सुने जाने वाली कहानी को शुरू करते हैं।

दोस्तो, हमने इस कहानी में जिस छोटे से परिवार का जिक्र किया है उसमें एक वृद्ध दंपत्ति सुप्रिय लखनपाल और उनकी पत्नी उमा लखनपाल हैं। लखनपाल दंपति की एकमात्र संतान उनका बेटा सौहार्द लखनपाल उर्फ गोलू है। इस तीन सदस्यीय छोटे से परिवार का 27 वर्षीय गोलू इस कहानी का नायक है और करीब 67 वर्षीय गोलू का मामा जनार्दन उर्फ़ भानू तिवारी इस कहानी का खलनायक है जिसे आप कलयुग का कंस मामा भी कह सकते हैं। आज से 25 साल पहले जिस समय इस परिवार के संघर्ष की दास्तां शुरू हुई और यह लड़ाई जब घर की चौखट से निकलकर अदालत के दरवाजे तक पहुंची उस समय सौहार्द लखनपाल उर्फ गोलू की उम्र मात्र 2 साल थी और जिस समय इस परिवार की लड़ाई अदालत की भी चौखट लांघकर देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थापित सबसे बड़ी पंचायत यानी विधान भवन के सामने स्थित धरनास्थल पर इस परिवार के धरना प्रदर्शन के रूप में एक लोकतांत्रिक लड़ाई के पड़ाव पर पहुंची उस समय गोलू की उम्र मात्र 4 वर्ष थी। इस छोटे से परिवार का विधानभवन के समक्ष धरना प्रदर्शन 12 साल तक चला क्योंकि शासन प्रशासन ने इस परिवार को न्याय दिलाने के बजाय उसे धरनास्थल से खदेड़ने के लिए उसका न सिर्फ दमन उत्पीड़न किया बल्कि तमाम तरह के घिनौने हथकंडे भी अपनाए जिनमें इस परिवार पर किए गए तीन जानलेवा हमले भी शामिल हैं। जिसके कारण इस छोटी सी लड़ाई ने एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। परिणामस्वरूप कहानी के नायक गोलू का खेलने खाने और पढ़ने का बचपन इस आंदोलन की भेंट चढ़ गया। स्कूल का मुंह न देख सकने वाले गोलू का भविष्य न सिर्फ अंधकारमय हो गया बल्कि उसके परिवार की जीविका के सभी साधन समाप्त हो जाने के कारण यह परिवार भुखमरी के कगार पर पहुंच गया। लेकिन लखनऊ की जनता ने इस परिवार को कभी मरने नहीं दिया। इस परिवार के न्यायपूर्ण संघर्ष को लखनऊ की जनता ने न सिर्फ अपना भरपूर समर्थन दिया बल्कि हर संभव सहयोग भी किया। लेकिन इस परिवार के साथ यह नौबत आई कैसे आखिर किस मजबूरी के कारण इस परिवार को धरनास्थल पर लगातार 12 साल तक आंदोलन चलाना पड़ा। इन सारे सवालों का जवाब हम यहां बाद में देंगे पहले हम इस कहानी के खलनायक और गोलू के कंस मामा जनार्दन उर्फ़ भानू तिवारी से आपका परिचय कराना चाहेंगे जिसकी वजह से इस जंग का आगाज हुआ।

गोलू के नाना स्वर्गीय जगसरन तिवारी का लखनऊ की एक कालोनी खुर्शेदबाग में उनकी अचल संपत्ति के रूप में एक मकान था। स्वर्गीय जगसरन तिवारी प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय संपूर्णानंद के कार्यालय में स्टेनोग्राफर के पद पर नौकरी करते थे जिन्होंने सन् 1957 में अपनी जमा पूंजी और को ऑपरेटिव बैंक से लोन लेकर उपरोक्त मकान खुर्शेदबाग कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी से 2700 स्क्वायर फीट की जमीन खरीद कर बनवाया था जिसका बाजार मूल्य आज तीन करोड़ से भी ज्यादा है। यह कालोनी अपने ज़माने की एक पाश कालोनी थी जो लखनऊ शहर के बिलकुल बीचो बीच बसी हुई है। स्वर्गीय जगसरन तिवारी की तीन पत्नियां थीं। पहली पत्नी से उनका एक बेटा लक्ष्मीकांत था जो कि बड़ा होकर इंडियन एक्सप्रेस का लखनऊ संवाददाता और लखनऊ का वरिष्ठ पत्रकार बना। पहली पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली। उनकी दूसरी पत्नी से भी उन्हें एक बेटा गोविंद हुआ जो बड़ा होकर जिला बस्ती के गांव नारायणपुर में स्थित उनके पुश्तैनी मकान में रहकर खेती बाड़ी का काम करने लगा। दूसरी पत्नी की मृत्यु के बाद स्वर्गीय जगसरन तिवारी ने बिना विधिवत शादी के उसी गांव के एक बेहद गरीब परिवार की लड़की श्रीमती रेशमा देवी को लखनऊ लाकर पत्नी के रूप में अपने साथ रख लिया क्योंकि उस समय रेशमा देवी महज 13 वर्ष की थी जबकि स्वर्गीय जगसरन तिवारी की उम्र उस समय 50 के पार जा चुकी थी। आगे चलकर इस तीसरी पत्नी से स्वर्गीय जगसरन तिवारी को तीन संताने प्राप्त हुई बड़ा बेटा जनार्दन उर्फ़ भानू तिवारी जो कहानी का खलनायक और गोलू का कंस मामा बना। दूसरा और छोटा बेटा राघव उर्फ राघवेंद्र तिवारी था जो बड़ा होकर पिता के आश्रित कोटे से सचिवालय में तृतीय श्रेणी कर्मचारी बन गया। सबसे छोटी और एकमात्र बेटी उमा तिवारी थी जो स्नातक होने के बाद एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का कार्य करने लगी। आगे चलकर उमा तिवारी का विवाह पत्रकार सुप्रिय लखनपाल से हुआ। कहानी का नायक गोलू इन्हीं की एकमात्र संतान था। कहानी के खलनायक जनार्दन उर्फ भानू तिवारी की भी एक मात्र पुत्री श्वेता तिवारी थी जिसकी शादी लखनऊ में ही चौक निवासी अभिनव झींगरन के साथ हो चुकी है। जबकि स्वर्गीय जगसरन तिवारी का छोटा बेटा राघव उर्फ राघवेंद्र तिवारी अविवाहित रहा। स्वर्गीय जगसरन तिवारी की तीसरी पत्नी श्रीमती रेशमा देवी की तीनों संताने जनार्दन उर्फ़ भानू तिवारी, राघव उर्फ राघवेंद्र तिवारी और उमा देवी उर्फ उमा लखनपाल तीनों अपने पिता के उपरोक्त मकान में ही रहते थे। अब राघव उर्फ राघवेंद्र तिवारी अविवाहित क्यों रहा और उमा लखनपाल विवाह के बाद भी उपरोक्त मकान में क्यों और कैसे रहे इन तमाम सवालों के जवाब हम आपको कहानी के खलनायक जनार्दन उर्फ भानू तिवारी का जीवन परिचय देने के बाद देंगे।

इस कहानी का खलनायक और गोलू का कंस मामा भानू तिवारी आपराधिक प्रकृति का एक दबंग व्यक्ति था जिसने अपने समूचे जीवन में कभी कोई काम धंधा नौकरी या व्यवसाए आदि नहीं किया। वह हमेशा अपने पिता के मकान 59, खुर्शेदबाग, लखनऊ से आने वाली किराएदारी पर ही निर्भर रहा और उसी से ही अपने व अपने परिवार की जीविका चलाता रहा। किराया पूरा न पड़ने पर वह बस्ती ज़िला स्थित अपनी ससुराल से अनाज वगैरह लाकर गुजारा करता रहा। अपने छात्र जीवन में भानू तिवारी का मन पढ़ाई में कम और हाई स्कूल व इंटर के छात्रों को बोर्ड की परीक्षाओं में नकल कराने और उनके फर्जी प्रमाणपत्र बनवाने में ज़्यादा लगता था। आठवीं पास पर हाई स्कूल फेल भानू तिवारी ने यहीं से आवारागर्दी और गुंडागर्दी शुरु कर दी। कालांतर में वह नाका थाना स्तर पर दलाली व मुखबिरी करने के साथ ही यूथ कांग्रेस की राजनीति करने लगा जिससे उसने अपनी राजनीतिक पहुंच भी बना ली। इसके अलावा उसने खुर्शेदबाग कॉलोनी में रहने वाले अपने ही जैसे लड़कों को इकट्ठा कर खुर्शेदबाग कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी का पदाधिकारी बन गया। बाद में उसके गिरोह के सभी लड़के सोसाइटी के स्वयंभू पदाधिकारी बन गए। इस गिरोह का एक ही काम था कि संपत्ति को लेकर पहले संपत्ति के उत्तराधिकारियों को आपस में लड़वा देना और फिर दोनों पक्षों का उनकी मदद के नाम पर आर्थिक दोहन करना, किसी के भी मकान में किसी को भी वैध या अवैध कब्जा दिलाना, वैध या अवैध कब्जाधारी को मकान से बेदखल करना, कालोनी में नगर निगम के निर्माण कार्यों में ठेकेदारों से मिलकर दलाली खाना, कालोनी के पार्कों व खाली जगहों पर दुकानदारों के अवैध कब्जे कराना, घर घर में व्यापारियों के गोदाम खुलवाना, घरों मे मांटेसरी स्कूल चलवा कर कालोनी व घरों का व्यवसायीकरण करना। पुलिस की शह पर चलने वाले इन सारे कार्यों में दलाली खाना और उसका एक हिसा पुलिस को भी पहुंचाना। इन सब आपराधिक कार्यो व भ्रष्टाचार आदि के कारण कानून के चंगुल से बचने के लिए सत्तारूढ़ दल के नेताओं, विधायकों, मंत्रियों आदि के कालोनी में स्वागत समारोह आयोजित करके उनका राजनीतिक संरक्षण हासिल करना रहा। इस तरह भानू तिवारी पुलिस का कमाऊ पूत भी बन गया। यही कारण है कि खुर्शेदबाग कालोनी के ही कई निवासियों ने खुर्शेदबाग कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी के ही खिलाफ कई मुकदमे कायम कर रखे हैं जो आज भी विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं। अपनी इन्ही विशेषताओं के करण माता पिता की मृत्यु के बाद भानू तिवारी की अपने पिता की संपत्ति को लेकर नीयत खराब हो गई और उसने पुलिस के साथ इस बात की सांठगांठ कर ली कि वह अपने छोटे भाई बहन को पिता की संपत्ति में उनके अधिकार से वंचित कर देगा और समूची संपत्ति अकेले ही हड़प कर बेच देगा और बिक्री से प्राप्त धन की पुलिस के साथ बंदर बांट कर लेगा।

जब पुलिस के साथ भानू ने सांठगांठ की तब तक वह तो बालिग हो चुका था लेकिन छोटे भाई-बहन राघवेन्द्र व उमा अभी नाबालिग ही थे। बालिग होने के बाद राघवेन्द्र तिवारी पिता के आश्रित कोटे से सचिवालय में तृतीय श्रेणी कर्मचारी बन गया जबकि बहन उमा तिवारी स्कूलों में अध्यापन करने लगीं। दोनो छोटे भाई बहन अपना गुजारा करने के अलावा अपने बड़े भाई भानू तिवारी की भी आर्थिक मदद करते रहते थे। इसी बीच भानू तिवारी ने अपने दोनों छोटे भाई बहन को अपने असली रंग दिखाने शुरू कर दिए। भानू ने अपने छोटे भाई राघवेन्द्र से कहा कि तुम तो सरकारी नौकरी करते हो लिहाजा तुम्हारा भविष्य तो सुरक्षित है इसलिए तुम मकान में अपना हिस्सा मेरे नाम लिख दो। उसने अपनी छोटी बहन से भी कहा कि वह तो शादी करके अपने घर चली जाएगी इसलिए वह भी मकान में अपना हिस्सा उसके नाम लिख दे। लेकिन जब दोनों छोटे भाई बहन ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तो भानू और उसके परिवार ने दोनों को बुरी तरह प्रताड़ित करना शुरू कर दिया जिसमें भानू तिवारी की ससुराल वाले भी शामिल हो गए। भानू ने पुलिस की मिलीभगत और अपने दो सगे सालों सच्चिदानंद मिश्रा व यशोदानंद मिश्रा की मदद से अपने दोनों छोटे भाई बहन को इतना आतंकित कर दिया कि वे पिता की संपत्ति पर अपने दावे न कर सकें।

इसके बाद भानू तिवारी ने पहले राघवेन्द्र को अपने निशाने पर लेते हुए उससे कहा कि वह यह न भूले कि उसकी सचिवालय की सरकारी नौकरी उसी ने लगवाई है। इसके जवाब में राघवेन्द्र ने अपनी लगी लगाई सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर एक तरह से उसे लात मार दी। इसके बाद राघवेन्द्र तनावग्रस्त होकर इधर उधर घूमने व भटकने लगा। घर में उसका मन बिल्कुल नहीं लगता था। किसी न किसी बहाने उसका आए दिन भानू से लड़ाई झगड़ा होता ही रहता था। हालांकि वह भानू तिवारी की ज़्यादतियों का प्रतिरोध करना चाहता था लेकिन वह बड़े भाई की पुलिस से मिलीभगत और उसकी राजनीतिक पहुंच के आगे बेबस व लाचार हो गया। हालांकि उसने कई बार भानू तिवारी के ज़ुल्म की शिकायत पुलिस से की लेकिन पुलिस ने भानू तिवारी के ख़िलाफ़ कभी कोई कार्रवाई नहीं की जिससे राघवेन्द्र पूरी तरह टूट गया। राघवेंद्र भानू तिवारी से इतनी नफरत करने लगा कि जब कोई उससे पूछता कि वह शादी करके भानू तिवारी के साथ मिलजुल कर क्यों नहीं रहता तो उसके जवाब में वह यही कहता कि मेरा इस घर से अब कोई नाता नहीं रह गया है। दरअसल, भानू तिवारी और उसके पड़ोस में ही रहने वाले उसके चाचा के परिवार वालों ने राघवेंद्र के चरित्र पर भी कीचड़ उछालना शुरू कर दिया था। इसी बात को लेकर भानू तिवारी और उसके चाचा के लड़के ज्ञानू तिवारी ने राघवेंद्र को डंडों से बुरी तरह मारा पीटा भी था। इसी के बाद राघवेंद्र ने यह कहना शुरू कर दिया कि उसे तो हिंदू धर्म से ही नफरत हो गई है इसलिए उसने मुस्लिम धर्म अपना लिया है और अब उसका नाम राघवेंद्र तिवारी नहीं बल्कि असलम खान है। राघवेंद्र ने इस बीच अपना हुलिया भी खराब कर लिया था। वह अक्सर गंदे और मैले कुचैले फटे कपड़ों में ही नजर आता था। कालांतर में पुलिस और भानू तिवारी ने राघवेंद्र की इसी हालत का नाजायज फायदा उठाकर बिना किसी चिकित्सीय प्रमाण के उसे पागल घोषित कर दिया जबकि सच्चाई यह थी कि राघवेंद्र पागल नहीं था बल्कि यह एक अकेले,बेबस और लाचार व्यक्ति का उन लोगों के खिलाफ एक विद्रोह था जो उसकी संपत्ति हड़पने के लिए उस पर तरह-तरह के जुल्म ढा रहे थे।










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